करीब 16 या सत्रह वर्षों की यह कविता है।
मम स्वप्नस्तु
मोंहें -जो-दरोगृहम्।
को वसेत्तत्र?
मेरा ख्वाब तो है
मोहें जो दरो का घर,
कौन रहेगा वहाँ।
मैं बचपन से सोचता था कि कहाँ गयी मेरी ऋषि संस्कृति?कहां मैं ढूंढु कालिदास की सृष्टि? कहां है मेरी देवभाषा? जो गया है,वह सब इतिहास की बातें है। मेरे आसपास तो अलग वास्तविकता है।
सुबह में वेद की ऋषिकाओं के मंत्रों का स्मरण हो रहा था ,तब ही सिगरेट पीती महिला देखी!
मुझे याद आया की मैं अतीत के
मोंहें जो दरो में खडा हूं!
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